लाइक शेयर कमेंट के 12वें एपिसोड में हमारे मेहमान थे सुप्रसिद्ध लेखक राजीव रंजन प्रसाद. राजीव जी वैसे तो सरकारी मुलाजिम हैं और नेश्नल हाइड्रो पॉवर कॉर्पोरेशन, खंडवा में बतौर असिस्टेंट मैनेजर (पर्यावरण) के पद पर पदस्थ हैं. बातचीत के दौरान विषय ‘बस्तर’ पर केंद्रित रहा. बस्तर को लेकर एक, दूसरे नजरिए पर चर्चा करते हुए, उन्होंने बहुत ही साफगोई से अपनी बात रखी. जब भी बस्तर के सच की बात होती है, सिर्फ दो पक्ष ही दिखाई देता है. एक तरफ माओवाद या नक्सलवाद और दूसरी तरफ सरकार का पक्ष. लेकिन इस बीच वहां के मूल निवासी आदिवासी का अपना सच कहीं दबा रह जाता है, जिस पर किसी का ध्यान नहीं जाता. बेबाकी से अपनी बात रखते हुए क्या कुछ खास कहा राजीव रंजन ने आप भी सुनिए.
बचपन से रही कविता कहानियों में रुचि
मेरा जन्म बिहार के सुल्तानगंज में हुआ लेकिन मेरे पिता केन्द्रीय विद्यालय, बचेली में बतौर अध्यापक ज्वाइन किए और हमारा परिवार एनएमडीसी, बचेली (दंतेवाड़ा) आ गया. मेरी उम्र महज चार वर्ष थी जब पिता जी का देहांत हो गया, उसके बाद मां ने ही पाल पोस कर बड़ा किया. बचेली उस वक्त इतना शांत था कि मां ने वहीं रहने का फैसला किया. सच कहूं तो बस्तर किसी स्वर्ग से कम नहीं था. मेरी प्रारंभिक शिक्षा वहीं हुई. आगे पढ़ाई करते हुए मैंने भोपाल से रिमोट सेंसिंग पर एमटेक किया. स्कूल के समय से ही मैं पत्रिका प्रतिध्वनि के संपादन से जुड़ा. और कॉलेज के दिनों में इप्टा से जुड़ने से नाटक के प्रति मेरी रूचि बढ़ी और मैंने नाटक लेखन और निर्देशन में अपने हाथ आजमाए. बाद में नौकरी में आने के बाद लिखने-पढ़ने की रूचि में कोई कमी नहीं आई और मैं किताब लिखने की ओर बढ़ गया.
एक दिन लगा कि मैं बेघर हो गया हूं.
दरअसल अपनी इंजीनियरिंग के दौरान मुझे जब भी परीक्षाओं की तैयारी करनी होती, प्रीपरेशन लीव में, मैं अपने बचेली आकर तैयारी किया करता था. जगह भी बिल्कुल तय होती थी. नहर से थोड़ी दूर जंगल के करीब एक खास जगह तैयार कर ली थी मैंने एकांत में पढ़ने के लिए. लेकिन मुझे याद है 90 के दशक में ऐसा हुआ कि एक बार मैं अपनी तैयारियों के लिए वहां गया, तो पुलिस वालों ने मुझे बीच में ही रोक दिया. उस दिन मुझे लगा कि मुझे अपने ही घर में जाने से रोका जा रहा है. दरअसल सन 1980 के बाद से आंध्रप्रदेश से माओवादियों के दमन के लिए सुरक्षा बलों ने सघन ऑपरेशन शुरू किया और वो नक्सल विचारधारा वाले लोग एक सुरक्षित जगह की तलाश में बस्तर पहुंचे. वहां पूरी दुनिया के लिए अबूझ पहेली की तरह अलग-थलग पड़ी जगह अबूझमाड़ को उन्होंने अपना अड्डा बनाया. उसके बाद उनका विस्तार होने लगा और कुछ वर्षों में धीरे-धीरे इसका असर दिखने लगा. इसी कड़ी में बचेली का एरिया भी जब उनके प्रभाव में आ गया, तो वहां भी आम लोगों को स्वतंत्र होकर जंगलों में कहीं भी जाने से रोका जाने लगा. पुलिस, लोगों को सुरक्षा का हवाला देकर अंदर जाने से रोकती थी. मुझे भी जब रोका गया तब मुझे बिल्कुल यही अहसास हुआ कि मैं बेघर हो गया हूं. कौन लोग आ गए, कहां से आ गए, और क्या चाहते हैं. उस समय तो कुछ ज्यादा समझ नहीं आ रहा था, लेकिन फर्क महसूस होने लगा इसलिए मेरे भीतर से भी हमेशा आवाज आती रही कि सच पता करना है.
सब अपना अपना सच लेकर बैठे हैं
दरअसल बस्तर को लेकर सबके अपने अपने सच हैं. वहां जो माओवादी जल-जंगल-जमीन की लड़ाई की बात करते हैं उनका अपना सच है. जबकि सरकार कजोक विकास और तरक्की की बात कहती है उसके अपने आंकड़े, तथ्य और सच हैं. इन सबके बाद दिल्ली में एयर कंडिशन्ड कैबिन में बैठे लोग हफ्ते-दस दिन के लिए बस्तर घूमने आते हैं, दो-चार लोगों से मिलते हैं और पता नहीं उनको क्या समझ में आता है, उनको बस्तर का अपना सच मिल जाता है. इस बीच वहां रहने वाला आदिवासी जो माओवादी और सुरक्षाबलों दोनों से डरा हुआ है उसके पास उसका अपना सच है. कुल मिलाकर अपने अपने फायदे और सुविधा के हिसाब से इतने लोगों के अपने-अपने तथ्य हैं. इसलिए बस्तर का एक नहीं बल्की कई सच हो गए हैं. हालांकि इन सबके बीच जो वाकई में सच है वो कहीं छुप सा गया है.
आख़िर बस्तर के जख्म पर हमें दर्द क्यों नहीं होता.
मुझे लगता है कि जब देश के दूसरे हिस्से में कोई अन्याय हो रहा होता है, तो हम सब अपनी आवाज बुलंद करने लगते हैं. लेकिन बस्तर को अलग-थलग क्यों छोड़ दिया गया है. इस पर दिल्ली में बैठे जो लोग दिलचस्पी लेते हैं उनके अपने फायदे नुकसान हैं. लेकिन जो इस राज्य के युवा हैं, यहां के निवासी हैं, जो यहां की सभ्यता और संस्कृति को औरों से बेहतर जानते हैं, वो जब खामोश रह जाते हैं तो मुझे दुख होता है. आज सोशल मीडिया का दौर है रायपुर, बिलासपुर, अंबिकापुर या और भी शहरों में रहने वाला युवा आवाज उठाने लगेगा तो ये मंजर बदलता हुआ दिखेगा. आज हम इसे बस्तर के आदिवासियों, माओवादियों औऱ सरकार का मसला मानकर छोड़ देते हैं, जो कि गलत है.
10 बड़े आंदोलन हुए हैं, फिर कैसे मान लें कि आदिवासी अपना हक नहीं जानते?
हमारी समस्या ये है कि हमारे देश को डेढ़ होशियार प्रशासक मिले. सत्तर के दशक में ब्रह्मदेव शर्मा बस्तर के कलेक्टर थे उन्होंने अजीब सा निर्णय लेते हुए अबूझमाड़ को जिंदा आदमियों का संग्रहालय बना दिया. उसे एक द्वीप बनाकर बाकी दुनिया से अलग थलग कर दिया. लोगों को वहां जाने के लिए कलेक्टोरेट से घंटे-घंटे के हिसाब से पास बनवाने पड़ते थे. वहां के रहने वाले मूल आदिवासी, विकास की मुख्य धारा से बिल्कुल अलग हो गए. आम जनता को उन तक पहुंचने से रोक दिया गया. लेकिन समस्या तब विकराल हो गई. जब सुरक्षाबलों के दमनचक्र के बाद आंध्रप्रदेश से भागकर माओवादी एक सुरक्षित जगह की तलाश में बस्तर में प्रवेश करने लगे. गुंडापल्ली सीतारमैया जब अपने माओवादी दलबल के साथ अबूझमाड़ में घुसने लगे तब उन्हें क्यों नहीं रोका गया. इन्हीं सबका असर आज बस्तर का विकराल रूप सामने आता है.
1876 और 1910 ई में दो बड़ी क्रांतियां हुईं बस्तर में. ‘कोयी’ आंदोलन बस्तर में हुआ जिसमें एक पेड़ काटने पर काटने वाले का सर काट दिया जाएगा, इसके अलावा और भी कई आंदोलन हुए जब आप बस्तर का इतिहास पढ़ेंगे तो इनका उल्लेख आपको मिल जाएगा, फिर आप कैसे कह सकते हैं कि आदिवासियों को अपने हक के लिए आवाज उठाना नहीं आता. उनकी आवाज बुलंद करने की बात कहकर दूसरे लोग अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं.
बस्तर में माओवाद को थोपा गया है.
तेंदूपत्ता नीति बनवाने का श्रेय अगर माओवादी लेते हैं, तो ठीक है उनको इसका क्रेडिट दे दिया जाए. लेकिन सवाल ये है कि इसके बाद माओवादियों ने किस मुद्दे पर सकारात्मक आंदोलन किए और इतने सालों में बाद कौन सा बदलाव लेकर आए हैं. इतने वर्षों में सिर्फ खून-खराबा ही दिखाई देता है. माओवाद दरअसल कोई विचारधारा नहीं है बल्कि विचारधार थोपने की तरह है. प्राचीन काल ईसापूर्व से नलों का शासन रहा, संस्कृत भाषा रही, राम के निशान मिलते हैं, महाभारत काल की निशानियां मिलती हैं, ढ़ोल कला को देखिएं वहां पहाड़ के उपर 6-7 वीं शताब्दी की गणेश प्रतिमा को देखकर आप बता सकते हैं कि हजारों साल पहले से वहां सभ्यता जागृत है. जो लोग अपनी दुनिया में बेहतरीन तरीके से मड़िया और मुखिया परंपरा के साथ अपना जीवन चला रहे थे जिस परंपरा में समाज का अंतिम व्यक्ति और मुखिया के बीच कोई अंतर नहीं था, इससे बड़ा साम्यवाद कहीं और नहीं मिल सकता. ये वहां प्राचीन सभ्यता थी, इसे तो 1980 के बाद बिगाड़ा गया है. जिसके जिम्मेदार दोनों हैं सरकार भी और माओवादी भी.
सोशल मीडिया बन सकता है बस्तर के बदलाव का सबसे बड़ा हथियार.
सोशल मीडिया का व्यापक दायरा इसे बहुत ही ताकतवर बनाता है. अपनी बात करोड़ों लोगों तक सीधे पहुंचाने का सबसे आसान जरिया है डिजिटल मीडिया. मुझे लगता है कि इस महत्वपूर्ण औजार का इस्तमाल करके बस्तर में नई उम्मीदों की रोशनी पहुंचाई जा सकती है. सबसे पहले तो वहां को लेकर लोगों में जो भ्रांतियां हैं उन्हें दूर करना चाहिए. सच में स्वर्ग की तरह सुंदर उस जगह को बुरी नजर लगी हुई है, युवाओं को सामने आना होगा. जरूरी नहीं कि बंदूक लेकर ही बस्तर की समस्या का हल करें. सरकार और सुरक्षा बलों को जो करना है वो करेंगे, लेकिन अगर राज्य की जनता जागरूक हो जाए तो वहां हो रहे दमन को रोकने में मदद मिलेगी. मगर इसके लिए जरूरी है कि हम भी वहां की जमीनी हकीकत टटोलने की कोशिश करें. दूसरों की बातें सुनकर अपनी राय न बनाएं. अगर हम थोड़ा-थोड़ा प्रयास करें तो एक दिन माओवाद और आतंक के रूप में मशहूर बस्तर, अपनी नैसर्गिक सुंदरता और प्राचीन सभ्यता के लिए दुनिया भर में जाना जाएगा.
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