लाइक शेयर कमेंट की 11वीं कड़ी में हमारे साथ थे दैनिक समाचार पत्र हरिभूमि के प्रधान संपादक श्री हिमांशु द्विवेदी जी. एक कुशल वक्ता, राजनैतिक मामलों के विशेषज्ञ और दमदार संपादक के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले हिमांशु जी की जिंदगी का सफर किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं है. जिस तरह फिल्म का नायक तमाम परेशानियों से लड़कर अपनी सूझ-बूझ और हौसले से अंत में विजयी होता है. ठीक वैसे ही हिमांशु द्विवेदी अपनी जिंदगी के हीरो हैं. बहुत से लोग जिस जिंदगी की कल्पना करते हैं, हिमांशु जी ऐसी जिंदगी जीते हैं. हालांकि सफलता के इतने ऊंचे मुकाप पर पहुंचने के बाद भी वो जमीन से जुड़े हुए हैं. श्री हिमांशु के साथ काम कर चुके लोग उनकी नेतृत्व क्षमता के कायल हैं. बातचीत के दौरान उन्होंने अब तक के सफर के कई रोचक किस्सों को बेहतरीन अंदाज में बताया. आप भी पढ़िए हिमांशु जी से बातचीत के अंश.
इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़कर बना पत्रकार
मेरे पिता जी ग्वालियर में शासकीय अधिकारी थे और उस समय हर मध्यमवर्गीय भारतीय परिवार का सपना होता था कि उनके बच्चे या तो इंजीनियर बनें या डॉक्टर. इसके अलावा कोई भी करियर मायने नहीं रखता था. मैं पढ़ाई में स्कूल से ही अच्छा था और गणित में अच्छे नंबर आने तथा पिताजी के दबाव के चलते इंजीनियरिंग में दाखिला मिल गया. मैंने इलेक्ट्रिकल ब्रांच चुना. हालांकि मेरी रूचि इतिहास में थी और मैं आर्ट्स लेकर पढ़ना चाहता था. मेरा सपना था कि आर्ट्स विषय की पढ़ाई के साथ आगे चलकर सिविल सर्विस की तैयरी करूं. लेकिन पिता जी से बगावत करने की हिम्मत नहीं थी. मैंने इंजीनियरिंग में प्रवेश तो ले लिया मगर मेरा मन पढ़ाई में लग नहीं रहा था. इसलिए मैंने पहले सेमेस्टर के बाद ही अपनी पढ़ाई छोड़ दी. इसका नुकसान ये हुआ कि पिताजी को मेरा निर्णय नागवार गुजरा और उन्होंने मुझे आगे पढ़ाई के लिए पैसे देने से ही इंकार कर दिया. अब अपने करियर को बनाने का पूरा जिम्मा मेरे कंधों पर था. मैंने बाद में आर्ट्स में एडमिशन लिया और चूंकि पिताजी से पैसे मिलने नहीं थे इसलिए एक दैनिक समाचार पत्र आज में एक इंटर्न के रूप में काम शुरू किया. जैसे कि मैंने आपको बताया कि मैं आईएएस बनना चाहता था, पत्रकार बनना मेरा सपना नहीं था. लेकिन उस समय के हालात के हिसाब से मुझे वहीं काम मिल सकता था और कुछ पैसे भी. उस वक्त मेरी उम्र महज 17 वर्ष थी. आज में काम करते हुए मुझे बाबरी मस्जिद ढहाए जाने पर आयोध्या जाकर रिपोर्टिंग का अवसर मिला. यहीं मेरी मुलाकात देशभर के सीनियर पत्रकारों से हुई और बहुत ही सेंसिटिव मुद्दे पर फील्ड रिपोर्टिंग के दौरान बहुत कुछ सीखने को मिला.
इसके बाद मुझे दैनिक भास्कर, ग्वालियर में काम करने का अवसर मिला. उस वक्त स्थानीय संपादक थे श्री आर.एल. शीतल जी. उनको देखकर ही मैंने काम सीखा है, मैं उनको अपना गुरू मानता हूं. भास्कर में रहते हुए ही मुझे सन् 1993 का चुनाव कवर करने का मौका मिला. इस दौरान मैंने श्री विद्याचरण शुक्ल जो कि उस वक्त संसदीय कार्यमंत्री थे, उनका इंटरव्यू लिया. साथ ही तात्कालीन गर्वरनर श्री कुंवर महमूद अली खां का टेलिफोनिक इंटरव्यू भी लिया. आमतौर पर गर्वनर से टेलिफोनिक इंटरव्यू करना प्रोटोकॉल से अलग था.
एडिटोरियल और मैनेजमेंट दोनों सीखा
मुझे ये देखकर खुशी होती थी कि पत्रकार को समाज में सम्मान दिया जाता है. किसी कार्यक्रम में आमंत्रण के साथ ही मेहमान नवाजी भी बहुत होती है. पिछले 2-3 साल के काम के दौरान मैंने कई ख़ास मौकों पर खुद को साबित भी किया. इससे मेरा आत्मविश्वास बढ़ा और मुझे पत्रकारिता में मजा आने लगा. हां लेकिन मैंने अखबार में रिपोर्टिंग और संपादकीय के साथ ही मैनेजमेंट यानी सेल्स और मार्केटिंग को भी समझने की कोशिश की. अखबार और किसी भी मीडिया जगत में ये एक साधारण बात है कि एडिटोरियल और मार्केटिंग वालों के बीच बनती नहीं है, जबकि दोनों के काम उस संस्था के लिए बहुत जरूरी होते हैं. इसका समाधान समझने के लिए मैंने मार्केटिंग टीम के साथ वक्त गुजारना शुरू किया और फायदा ये हुआ कि अखबार की खबरें, विज्ञापन, प्रिंटिंग से लेकर सर्कुलेशन तक के काम की बारीकियां मुझे समझ आने लगी.
करीब 2 हजार लोग छोड़ने आए एयरपोर्ट
ये वाकया तब का है जब सेलम में हुए एक राष्ट्रीय स्तर की भाषण प्रतियोगिता में मुझे प्रथम स्थान मिला और इसके बाद जापान के 6 शहरों में भी मेरे आख्यान हुए. उस वक्त विदेश जाना बहुत बड़ी बात होती थी और मुझे जब यह सुअवसर मिला तो मुझे छोड़ने के लिए करीब 2 हजार लोग एयरपोर्ट पहुंचे.
22 वर्ष की उम्र में बना संपादक
ये बात सन 1995 की है. श्री आनंद मोहन छपरवाल जो कि स्वदेश का संचालन करते हैं उन्होंने मुझे स्वदेश समाचार पत्र के लिए सतना का स्थानीय संपादक बनने का प्रस्ताव दिया. मैंने स्वदेश ज्वाइन किया और इसके कुछ महीनों के भीतर ही मुझे इसके प्रबंधन की जिम्मेदारी भी दे दी गई. इस वक्त मेरी उम्र 22 वर्ष थी. पत्रकारिता में करियर की शुरूआत करने के कुछ सालों के भीतर ही मैंने एडिटोरियल और मैनेजमेंट दोनों विभागों में अपनी पकड़ मजबूत की. स्वदेश (सतना) के बाद मैंने नवभारत, छिंदवाड़ा एडिशन के लिए भी काम किया. इसके बाद वर्ष 2000 में परिस्थितियां कुछ ऐसी निर्मित हुईं कि फिर से स्वदेश के साथ जुड़कर मुझे रायपुर आने का अवसर मिला और मैंने एक नए शहर में नई जिम्मेदारी के साथ काम शुरू किया.
कैप्टन अभिमन्यू से मुलाकात रही खास
बात वर्ष 2000 की है जब मैं स्वदेश रायपुर का संपादक बनकर इस शहर में पहली बार आया था. उसी समय हरिभूमि के बिलासपुर एडिशन की शुरूआत हो रही थी. स्वदेश की हालत बेहतर नहीं थी. मैंने अपनी ओर से बहुत प्रयास किए किसी तरह स्थिति को बेहतर करने की लेकिन ऐसा हो न सका. इसी दौरान हरिभूमि के मालिक कैप्टन अभिमन्यू से मुलाकात का अवसर मिला. यह मुलाकात स्वदेश, रायपुर के प्रेस से हरिभूमि अखबार की छपाई को लेकर हुई थी और इसके लिए प्रयास भी हुए लेकिन बात बन नहीं पाई. और कुछ समय बाद उनकी तरफ से हरिभूमि से जुड़ने का प्रस्ताव जरूर आ गया. हालांकि इस प्रस्ताव पर मैंने तत्काल तो हां नहीं कहा था लेकिन कुछ दिनों के बाद ऐसी परिस्थिति बनी कि एक और मुलाकात हुई तथा हरिभूमि से जुड़ने के विषय पर बात बन गई. और मैंने रोहतक (हरियाणा) में हरिभूमि ज्वाइन करने का निर्णय लिया. वो दौर भी हरिभूमि के विस्तार का था. हरियाणा, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में इसका विस्तार हो रहा था. इस दौरान मैंने संस्थान के लिए कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए और जिसका बेहतर परिणाम भी सामने आया. मसलन दिल्ली में एक बड़ी संस्थान के मार्केटिंग हेड अपनी नौकरी बदलने के मूड में थे, इसकी जानकारी मिलने पर मैंने उनसे और हरिभूमि के मैनेजमेंट से बात की और दिल्ली की कनॉट प्लेस में ऑफिस के साथ, गाड़ी-ड्राइवर के अलावा मुझसे 5 गुना ज्यादा तनख्वाह पर उनको ज्वाइन कराया. इससे फायदा ये हुआ कि संस्थान को लगने लगा हिमांशु ओनरशिप के साथ काम करते हैं और संस्थान की भलाई के लिए महत्वपूर्ण निर्णय लेने में देर नहीं लगाते. मुझे अपनी कुर्सी की चिंता कभी नहीं रही, मेरा मानना है कि अगर काबिलियत और नीयत हो, तो एक नहीं सौ दरवाजे हमेशा खुले रहते हैं और ये बात सब पर लागू होती है. चार साल तक रोहतक में रहने के बाद हरिभूमि के रायपुर एडिशन लॉन्च करने के लिए मैं रायपुर आया और फिर तब से यहीं का होकर रह गया. इसके आगे की कहानी तो आप सभी को पता है.
नौकरी की अहमियत मालूम है मुझे
मैंने जब भी अपने संस्थान को बदलने का निर्णय लिया उस वक्त बहुत सोच समझकर फैसला किया. महज कुछ ज्यादा तनख्वाह, पद या सुविधा के लालच में कभी नहीं सोचा की नौकरी बदल दूं. अपनी संस्थान के लिए पूरी ईमानदारी से प्रयास किया और अगर कुछ ऐसी परिस्थिति बनी कि मेरी कोशिश के बावजूद स्थिति बेहतर नहीं हुई तभी मैंने दूसरे प्रस्ताव को हां कहा. शादी होने के चंद दिनों के भीतर ही मैं कुछ महीने बेरोजगार भी रहा हूं इसलिए मुझे नौकरी की अहमियत मालूम है. आज भी मेरे साथ काम करने वालों में कई लोग ऐसे हैं जो दो-तीन बार मेरी संस्था से जा चुके हैं और फिर लौटकर आ जाते हैं, उनको पता है कि कुछ हो न हो हिमांशु द्विवेदी का दरवाजा खुला होगा. मेरे साथ भी ऐसा है मैंने भी अपनी पहली नौकरी जिनके मार्गदर्शन में शुरू की वो आज मेरी संस्थान से जुड़े हैं और ऐसे कई लोग हैं जिनसे अपने सफर में मुलाकात होती रही उनसे संबंध बेहतर ही हैं चाहे बात नवभारत, दैनिक भास्कर या स्वदेश की हो.
मैं जैसा भी हूं, सबके सामने हूं
मेरा मानना है कि आपके व्यक्तित्व में पारदर्शिता होनी चाहिए. मैं जो हूं, वैसा ही सबके सामने हूं. जो मैं कहता हूं, वो मैं जीता हूं. इसिलिए अपनी बात बेबाक कह जाता हूं. पत्रकार होने के नाते हमारे सभी से संबंध होते हैं. सत्ता में भी पक्ष और विपक्ष के नेताओं से संबंध होते हैं लेकिन मैंने कभी भी अपने निजी स्वार्थ के लिए किसी संबंध को भुनाने की कोशिश नहीं की.
मोदी जी ने किया किताब का विमोचन
प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अमित शाह ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचारों को अमल में लाने पर आधारित पुस्तक ‘अमल’ का विमोचन कोझीकोड में आयोजित भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय काउंसिल में किया. पंडित दीनदयाल जी के विचारों को गत 13 वर्षों में डॉ रमन सिंह के नेतृत्व वाली छत्तीसगढ़ सरकार ने किस तरह से क्रियान्वित किया है. विचार और व्यवहार की इस यात्रा को मैंने अमल में लिपिबद्ध करने की कोशिश की है.
सोशल मीडिया एक ताकतवर हथियार है, इसका सही इस्तेमाल जरूरी.
सोशल मीडिया का दायरा बहुत बढ़ चुका है और लगातार बढ़ता जा रहा है. अब यह सिर्फ युवाओं के लिए नहीं रह गया. हर आयु वर्ग के लोग इससे जुड़े हुए हैं. ये एक ताकतवर हथियार है और इसके नतीजे इस पर निर्भर इस पर करते हैं कि इस्तेमाल किस तरह किया जा रहा है. फायदे और नुकसान दोनों हैं, लेकिन मुझे फायदा ज्यादा दिखता है. हां एक बात जरूर है कि मैं सोशल मीडिया को कन्वेंश्नल मीडिया के लिए खतरा नहीं मानता हूं. दुनिया का सबसे बड़ा अखबार जापान में हैं, जो कि टेक्नॉलाजी के मामले में हमसे कहीं आगे है. इसलिए अखबार के अस्तित्व पर संकट तो मुझे नहीं दिखता. लेकिन डिजिटल मीडिया का जमाना है इस बात पर कोई शक नहीं.
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